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आबचंद, तहसील सागर

आबचंद की गुफ़ाएँ भारत के मध्य प्रदेश राज्य में सागर शहर  करीब 35 किमी पूर्व की ओर सागर दमोह मार्ग  पर स्थित हैं। लगभग एक दर्जन शैल गुफाएं हैं। ये गुफाएं गधेरी नदी की घाटी में आबचंद के रक्षित वन की घनी झाड़ियों वाले क्षेत्र में सुरक्षित हैं। इन गुफाओं में पाए गए शैल चित्रों में भी उसी प्रकार की रंगीन चित्रकारी की गई है, जैसी  सिघन पुर  में आदमगढ़  प्राप्त हुई है। सबसे बड़ी गुफा करीब 40 फुट लंबी है। यहां साल में एक बार मकर संक्रांति पर मेला लगता है जिसे गुफा मेला कहते हैं। आबचंद के शैलचित्रों में पुरामानव की लोकचित्रकला के दर्शन होते हैं। इससे सिद्ध है कि बुंदेलखंड में लोकसंस्कृति की आदिम स्थिति वर्तमान थी। आपचॅद। आबचॅद क़ी ग़ुफाऎ ग़िरबर रेलवे स्टेश्न से ३क़िमी दूर है। य़े ग़ुफाऎ ग़देरी ऩदी क़े पानी से पहाड़ क़ट क़र बनी है।

बलेह , तहसील रहली

यह सागर से 36 मील दक्षिण -पूर्व मे एक गाँव  है और रहली से 11 मील दूर है , जिसके साथ यह एक सड़क से जुड़ा है | यहा पाये गए एक अभिलेख मे फलवान या यालवना पत्तला का उल्लेख है औए एक चंडिका मंदिर का उलेख है | पूर्व में 53 गाँवों से जुड़े बाले की संपत्ति पटेहरा के एक गोंड परिवार की है जिसे देवरी से बाहर निकाला जा रहा है जो 1747 में यहाँ आकर बस गया था। इसमें कुछ पुराने टैंक और सुपारी के बागान हैं जो कुछ प्रतिष्ठा का एक पत्ता बनाते हैं।

बामोरा , तहसील खुरई

बामोरा बीना इटारसी लाइन  पर पड़ता है | यहा जाजगीर जैसा एक पूरना मंदिर है जिसे पथरों द्वारा बनाया गया है | यहा वारहा की एक पठार की मूर्ती है | बौद्ध धर्म यहा पनपा इसके भी प्रमाण है |

बरोड़ियाँ कलाँ , तहसील खुरई

बरोदिया कला सागर झांसी रोड पर स्थित है | यहा बहुत पुराने किले है जो अब खंडर के रूप मे बदल गए है |बरोदिया कलाँ मे  अंग्रेज़ो और विद्रोहियों के बीच  में एक मुठभेड़ हुई, जो राहतगढ़ किले के गिरने के बाद यहाँ केंद्रित थी| इस स्थान पर वीरता का उल्लेखनीय दृश्य दिखाई दिया जहा अफगान सनिकों ने मरते हुए भी अपने दुश्मनों और प्रमुख राजाओं को  मार दिया था |

गढ़पहरा, तहसील सागर

गढ़पहरा को पुराना सागर भी कहते हैं जो डांगी राज्‍य की राजधानी था। यह झांसी मार्ग पर सागर से करीब 10 किमी की दूरी पर स्थित है। इसकी प्राचीनता गौंड शासक संग्रामसिंह के समय से मानी जाती है। उस समय गढ़पहरा एक गढ़ था, जिसमें 360 मौजे थे। बाद में डांगी राजपूतों ने इस भाग को जीतकर अपने राज्‍य में मिला लिया।गढ़पहरा के अब भी कुछ ऐतिहासिक अवशेष बाकी हैं। कम ऊंचाई के क्षेत्र पर निर्मित किले के खंडहरों तक आज भी आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहां डांगी शासकों के शीश महल के नाम से ज्ञात ग्रीष्म आवास के अवशेष भी हैं। इसका संबंध राजा जयसिंह से जोड़ा जाता है। मान्यता है कि दो सौ साल पहले राजा जयसिंह इसमें रहते थे

एरण , तहसील खुरई

एरण नामक ऐतिहासिक स्थान  के   जिले में स्थित है। प्राचीन सिक्को  पर इसका नाम ऐरिकिण लिखा है। एरण में वाराह , विष्णु तथा नरसिंघ मन्दिर स्थित हैं। एरण , सागर से करीब 90 किमी दूर स्थित है। यहां पहुंचने के लिए सड़क मार्ग के अलावा ट्रेन का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। सागर-दिल्ली रेलमार्ग के एक महत्वपूर्ण जंक्शन बीना  से इसकी दूरी करीब 25 किमी है। बीना  और रेवता  नदी के संगम पर स्थित एरण का नाम यहां अत्यधिक मात्रा में उगने वाली प्रदाह प्रशामक तथा मंदक गुणधर्म वाली ‘एराका’ नामक घास के कारण रखा गया है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि एरण  के सिक्कों पर नाग का चित्र है, अत: इस स्थान का नामकरण एराका अर्थात नाग से हुआ है। एरण के प्रचीनकाल के इतिहास के बारे में मिले पुरातात्वीय अवशेष हालांकि गुप्तकाल के हैं लेकिन यहां मिले सिक्कों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व काल में भी यह स्थान आबाद था। एरण के बारे में माना जाता है कि यह गुप्तकाल में एक बहुत ही महत्वपूर्ण नगर था। प्राचीन संदर्भ पुस्तकों के अनुसार एरण को स्वभोग नगर कहा जाता था।

रानगिर , तहसील रहली

रानगिर में विराजीं मां हरसिद्धी लोगों की आस्था का केंद्र हैं। एक किवदंति प्रचलित है कि यह मंदिर पहले रानगिर में नहीं था नदी के उस पार देवी जी रहती थीं। माता, कन्याओं के साथ खेलने के लिए आया करती थीं। एक दिन गांव के लोगों ने देखा कि यह कन्या सुबह खेलने आती है और शाम को कन्याओं को एक चांदी का सिक्का देकर बूढ़ी रानगिर को चली जाती हैं। उसी दिन हरसिद्धि माता ने सपना दिया कि मैं हरसिद्धि माता हूं, बूढ़ी रानगिर में रहती हूं। यदि बूढ़ी रानगिर से रानगिर में ले जाया जाए तो रानगिर हमारा नया स्थान होगा। रानगिर में बेल वृक्ष के नीचे हरसिद्धि मां की प्रतिमा मिली। लोग बेल की सिंहासन पर बैठाकर उन्हें सायंकाल रानगिर लाए। दूसरे दिन लोगों ने उठाने का प्रयास किया कि आगे की ओर ले जाया जाए, लेकिन देवी जी की मूर्ति को हिला नहीं सके। ऐसी मान्यता है कि माता के सुबह दर्शन करो तो कन्या रूप में दर्शन होते हैं। दोपहर में युवा अवस्था तथा शाम को वृद्धावस्था में दर्शन देती हैं।